जालियाँवाला बाग हत्याकांड: भारत की आज़ादी की लड़ाई का एक निर्णायक मोड़
13 अप्रैल 1919 को पंजाब के अमृतसर में घटित जालियाँवाला बाग हत्याकांड भारतीय इतिहास की सबसे दर्दनाक घटनाओं में से एक है। यह निर्मम हत्याकांड एक शांतिपूर्ण जनसभा पर अकारण गोलाबारी का परिणाम था, जिसने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। इस घटना ने ब्रिटिश हुकूमत की क्रूरता को उजागर किया और स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी। आज भी यह घटना अत्याचार के विरुद्ध भारतीय संघर्ष और बलिदान की प्रतीक बनी हुई है।
The Jallianwala Bagh Massacre 1919
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
बीसवीं सदी की शुरुआत में भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ असंतोष तेजी से बढ़ रहा था। प्रथम विश्व युद्ध में भारतीयों ने अंग्रेज़ों का साथ दिया था, इस उम्मीद में कि युद्ध के बाद उन्हें राजनीतिक रियायतें मिलेंगी। लेकिन इसके विपरीत, अंग्रेज़ों ने 1919 में रौलेट एक्ट पारित कर दिया, जिसने बिना मुकदमे के गिरफ्तारी और बंदी बनाए रखने की अनुमति दी।
इस कानून का पूरे देश में ज़ोरदार विरोध हुआ। महात्मा गांधी ने इसे "काला कानून" करार दिया और देशभर में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। पंजाब के अमृतसर में डॉ. सैफुद्दीन किचलू और डॉ. सत्यपाल जैसे लोकप्रिय नेताओं की गिरफ्तारी ने स्थिति को और उग्र बना दिया।
जालियाँवाला बाग की त्रासदी
13 अप्रैल 1919, को बैसाखी के पर्व पर अमृतसर के जालियाँवाला बाग में हजारों लोग एकत्र हुए थे। वे या तो त्योहार मनाने आए थे या रौलेट एक्ट और नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध में शांतिपूर्ण सभा में शामिल होने। यह बाग चारों ओर से ऊँची दीवारों से घिरा हुआ था और उसमें केवल कुछ संकरे रास्ते ही बाहर निकलने के थे।
उसी दिन ब्रिगेडियर जनरल रेजिनाल्ड डायर लगभग 90 सैनिकों के साथ बाग में पहुँचा। बिना किसी चेतावनी के, डायर ने सैनिकों को सीधे निर्दोष लोगों पर गोलियाँ चलाने का आदेश दे दिया। अगले 10 मिनट तक लगातार 1650 गोलियाँ चलाई गईं। सैनिकों ने खास तौर पर उन स्थानों को निशाना बनाया जहाँ से लोग बाहर निकलने की कोशिश कर रहे थे।
सरकारी आँकड़ों के अनुसार 379 लोग मारे गए और 1200 से अधिक घायल हुए। लेकिन भारतीय सूत्रों के अनुसार, 1000 से अधिक लोगों की मौत हुई। वास्तविक संख्या संभवतः इससे भी अधिक थी।
जनता का आक्रोश और प्रतिक्रिया
इस हत्याकांड से भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में आक्रोश फैल गया। जनरल डायर ने इसे "नैतिक प्रभाव" पैदा करने की कार्रवाई बताया और कहा कि उसने भीड़ को सबक सिखाने के लिए यह कदम उठाया। ब्रिटेन में कुछ लोगों ने डायर की सराहना की, लेकिन भारत में यह घटना क्रांति का आगाज़ बन गई।
रवींद्रनाथ ठाकुर ने ब्रिटिश सरकार द्वारा दी गई "नाइटहुड" की उपाधि लौटा दी और इस कांड को मानवता पर "बर्बर प्रहार" बताया। ब्रिटिश सरकार ने हंटर कमीशन का गठन कर इस घटना की जांच कराई, जिसने डायर की कार्रवाई को अनुचित बताया, लेकिन उसे कोई कठोर सज़ा नहीं दी गई। यह ढील भारतीयों के लिए और भी अपमानजनक थी।
स्वतंत्रता आंदोलन पर प्रभाव
जालियाँवाला बाग हत्याकांड भारत के स्वतंत्रता संग्राम का निर्णायक मोड़ बन गया। अब यह स्पष्ट हो गया था कि ब्रिटिश राज न केवल अन्यायी है, बल्कि मानवता विरोधी भी है। पहले जो लोग सुधारों की उम्मीद में थे, वे अब पूरी आज़ादी की माँग करने लगे।
महात्मा गांधी ने ब्रिटिश सत्ता से सहयोग समाप्त कर दिया और असहयोग आंदोलन (1920) की शुरुआत की। यह आंदोलन ब्रिटिश सामान, संस्थाओं और पदों के बहिष्कार पर आधारित था। इस घटना के बाद क्रांतिकारी संगठनों को भी बल मिला, जिन्होंने सशस्त्र संघर्ष को अपना रास्ता चुना।
स्मारक और विरासत
इस दर्दनाक घटना की स्मृति को जीवित रखने के लिए 1951 में जालियाँवाला बाग को राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया गया। वहाँ आज भी दीवारों पर गोलियों के निशान और वह कुआँ देखा जा सकता है, जिसमें कई लोग जान बचाने के लिए कूद गए थे।
बाग में बनी "अमर ज्योति" और संग्रहालय इस बलिदान की गाथा को आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाते हैं। यह स्थल आज भी लाखों लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य
समय के साथ जालियाँवाला बाग हत्याकांड भारत-ब्रिटेन संबंधों में चर्चा का विषय बना रहा है। हालाँकि ब्रिटिश नेताओं ने इस घटना पर "खेद" व्यक्त किया है, परंतु अब तक कोई औपचारिक माफी नहीं दी गई है। 2019 में, इस घटना के 100 वर्ष पूरे होने पर ब्रिटेन की प्रधानमंत्री थेरेसा मे ने इसे "शर्मनाक धब्बा" कहा, लेकिन माफ़ी नहीं माँगी।
भारत में यह घटना आज भी स्कूलों की किताबों, साहित्य और फिल्मों में जीवित है। यह घटना हमें यह सिखाती है कि स्वतंत्रता की राह आसान नहीं थी, और उसके लिए असीम बलिदानों की आवश्यकता थी।
निष्कर्ष
जालियाँवाला बाग हत्याकांड सिर्फ एक नरसंहार नहीं था, यह भारत की आज़ादी की लड़ाई में एक चेतना का विस्फोट था। इसने पूरे राष्ट्र को झकझोर कर एकजुट कर दिया। यह घटना न केवल औपनिवेशिक क्रूरता की प्रतीक है, बल्कि भारतीय आत्मबल, एकता और साहस का प्रमाण भी है।
आज जब हम स्वतंत्र भारत की साँस लेते हैं, तो उन निर्दोष शहीदों को याद करना हमारा कर्तव्य बनता है जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति दी ताकि हम स्वतंत्रता का सूरज देख सकें। जालियाँवाला बाग की दीवारें आज भी उस बलिदान की गवाही देती हैं और आने वाली पीढ़ियों को यह संदेश देती हैं — "आजादी मुफ्त नहीं मिली, इसकी कीमत खून से चुकाई गई है।"
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